बोडो भाषा स्वाभिमान का मानक

असम के बोडो जनजाति की भाषा है बोडो भाषा। समाज के प्रबुद्ध लोगों ने बहुत बड़ी मात्रा में बोडो भाषा में साहित्य का सजृन किया है। एक समय था जब असम के तमाम जनजातियों की लिपि असमिया लिपि ही थी लेकिन चर्च के बहकावे के कारण (यह तो असमिया भाषा की लिपि है, आपकी लिपि तो है ही नहीं) जनजाति लोगों को लगा की उनकी अपनी लिपि होनी चाहिए। इस दिशा में अरूणाचल के जनजातियों ने एक तेनि लिपि का सर्जन किया जोकि अभी भी शायद मान्य नहीं हुआ है।

चर्च ने लोगों को रोमन लिपि देने का प्रयास प्रारम्भ किया और अनेक जनजातियों ने उसका स्वीकार भी कर लिया। इस दौरान बोडो के लिए भी रोमन का प्रयोग प्रारम्भ हो गया था। लेकिन संतोष की बात है कि बोड़ो साहित्य सभा के माध्यम से संघर्ष किया और अंततः देवनागरी लिपि को ही स्वीकार किया जो कि एक प्रशंसनीय निर्णय था। इस संघर्ष में बोडो साहित्य सभा के अध्यक्ष बिनेश्वर ब्रह्म की हत्या भी हुई लेकिन समाज झुका नहीं, जो सभी जनजातियों के लिए मार्गदर्शक है।

भारत सरकार ने भी बोडो भाषा को संविधान की 22वी भाषा के रूप में स्वीकार कर लिया। बोडो समाज ने शिक्षा संस्थानों में भी आज इस भाषा के आधार पर शिक्षा का आग्रह रखा है। कोई व्यक्ति यदि बोडो भाषा का अध्ययन करना चाहता है तो स्नातकोत्तर (पोस्ट ग्रॅज्यएशन) तक गुवाहाटी विश्वविद्यालय तथा बोडो लैण्ड युनिवर्सिटी में बोडो में पढ़ाई कर सकता है।

जिन-जिन जनजातियों ने रोमन लिपि स्वीकार की वे सभी इसाईयत के निकट चले गये और भारतीय साहित्य और उसके ज्ञान भण्डार से कट गए।

एक भ्रम भी चल पड़ा की रोमन लिपि से हमारी भाषा का विकास होगा, जो पूर्णतः असत्य है।

-भरत कुमार, गुवाहाटी

We Are Social