वनक्षेत्र में आज शिक्षा, चिकित्सा सुविधा, आर्थिक विकास की दिशा में हमें कमियाँ दिखाई पड़ रही है। अगर नगरों में रहनेवाला समाज 100 वर्ष पूर्व ही जागृत एवं सचेत होकर अपने वनवासी बन्धुओं के बारे में सक्रीय हुआ होता तो आज चित्र कुछ और होता। नगरीय समाज की उदासीनता, उपेक्षा एवं वनक्षेत्र तथा जनजाति समाज के बारे में अज्ञानता के कारण आज अराष्ट्रीय, असामाजिक एवं विघटनकारी शक्तियाँ वनक्षेत्र में अपनी जडे़ जमायें हुए है। भोला-भाला वनवासी समाज उनकी शिकार बन गया है।
सामान्य रूप से एसी धारणा है कि नगरवासियों से वनवासी क्षेत्र के सेवाकार्य के लिये धन तथा संसाधन की पूर्तता यही नगरीय कार्य है। यद्यपि ‘नगरीय कार्य’ का यह कार्य अवश्य है, परन्तु इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है नगरवासियों के ध्यान में यह लाना की वनवासी समाज इस राष्ट्रपुरूष का एक अंग है। वनवासी बन्धुओं ने आज भी अपनी संस्कृति का, अपने जीवनमूल्यों को सम्भाल के रखा है।
वनवासी आर्थिक रूप में अभावग्रस्त हो सकता है, किन्तु सांस्कृतिक जीवनमूल्यों की दृष्टी से सम्पन्न है। अतः नगरीय एवं वनवासी समाज के बीच आत्मीय सम्पर्क, सम्बन्ध स्थापित होने से जहाँ एक ओर अपने वनवासी बन्धुओं की भौतिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होगा वहीं दूसरी ओर नगरीय परिवारों में सांस्कृतिक जीवनमूल्यों की सम्भावनाएँ बढ़ सकती है। अतः वह आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने में कल्याण आश्रम सेतु का कार्य कर रहा है।
वार्ता